जिस आंगन में बचपन बीता
उसे छोड़ एकपल में तेरे घर को अपना लिया
जो अपना था वो अब अपना रहा नहीं
और बेगाने अब हमारी तकदीर हो गए
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
अपने माँ बाबा की लाडली थी मैं जान
मेरी हर गलती को हंस कर नज़रअंदाज़ कर देते थे
आज छोटी सी गलती हो जाए तो
मेरे पूरे खानदान को गाली दे दी जाती है
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
मांग मे सिंदूर क्या पड़ गए
एक पल मे ही सारे रिश्ते बदल गए
मैं बेटी से बहु बन गई
जिम्मेदारियों के बोझ तले दब गई
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
तुम मुझे अपने कमरे में भेज घंटों
अपने परिवार वालों के साथ वक़्त बिताते हो
मैं नहीं कहती कि तुम सब मेरी शिकायतें करते हो
पर क्या उन लम्हों में मैं शामिल नहीं हो सकती थी
अब मैं भी तो तुम्हारे परिवार का हिस्सा थी जान
फ़िर क्यूँ मुझसे ऐसा परायापन
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार, तुम्हारे दोस्त तुम्हारी ज़िंदगी
जैसे कल चल रही थी आज भी वैसी ही है
पर मेरा क्या, मुझसे तो मेरी पहचान भी छीन गई
और जो कभी मैं अपनी माँ से थोड़ी देर बात कर लूँ
तो ऐसा लगता है जैसे कोई गुनाह हो गया हो
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
आज तक मेरे माँ बाबा ने मुझ पर उंगली नहीं उठाई
ना ही कभी अभद्र शब्दों के बाण चलाए मुझ पर
लाखों मे एक थी उनकी बेटी, गुणों की खान
पर ससुराल आते ही ऐसा क्या बदल गया मुझमे
कि रोज हर बात के लिए आलोचनाएं मिलने लगी
मेरे चरित्र पर किचड़ उछाले जाने लगे
मेरे कोमल मन को बारबार लहूलुहान किया जाने लगा
और तुम उस वक़्त भी मुकदर्शक बन खड़े रहे
यही फर्ज़ है होता है एक पति का अपनी पत्नी के लिए
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
हर कदम साथ निभाने का वादा किया था तुमने
पर जब भी जरूरत पड़ी ख़ुद को तन्हा ही पाया
तेरे हर मुश्किलों मे तेरा हौसला बढ़ाया हमने
ख़ुद से भी ज्यादा ऐतबार किया था हमने तुम पर
पर तुम से वो साथ और भरोसा कभी ना पा सकी
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
अपनी ही शर्तों पे ज़िन्दगी जीने की आदत थी मुझे
मस्त बिंदास और बच्चों जैसी हरकतें थी मेरी
फ़िर भी तेरे लिए ख़ुद को पल में बदल डाला
तेरी ख़ुशी मे ही ख़ुद की ख़ुशी तलाशने लगी थी
बावज़ूद इसके तेरे संग दो पल को मैं तरसती रही
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
बेटी नहीं बेटा बना कर पाला था मेरे बाबा ने मुझे
तुम अगर अपने बीमार माँ बाप की सेवा करो तो फर्ज़
और जो मैं करना चाहूं तो मेरे पैरों में बेड़ियाँ
तुम्हारी बहन मायके में महीनों बिताए तो उसका हक
और जो मैं कुछ दिनों के लिए मायके चली जाऊँ
अपने जरूरतमंद माँ बाप की सेवा करने या मन बहलाने
तो जमाने भर के ताने और मेरे संस्कारों को गालियाँ
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
#SwetaBarnwal
उसे छोड़ एकपल में तेरे घर को अपना लिया
जो अपना था वो अब अपना रहा नहीं
और बेगाने अब हमारी तकदीर हो गए
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
अपने माँ बाबा की लाडली थी मैं जान
मेरी हर गलती को हंस कर नज़रअंदाज़ कर देते थे
आज छोटी सी गलती हो जाए तो
मेरे पूरे खानदान को गाली दे दी जाती है
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
मांग मे सिंदूर क्या पड़ गए
एक पल मे ही सारे रिश्ते बदल गए
मैं बेटी से बहु बन गई
जिम्मेदारियों के बोझ तले दब गई
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
तुम मुझे अपने कमरे में भेज घंटों
अपने परिवार वालों के साथ वक़्त बिताते हो
मैं नहीं कहती कि तुम सब मेरी शिकायतें करते हो
पर क्या उन लम्हों में मैं शामिल नहीं हो सकती थी
अब मैं भी तो तुम्हारे परिवार का हिस्सा थी जान
फ़िर क्यूँ मुझसे ऐसा परायापन
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार, तुम्हारे दोस्त तुम्हारी ज़िंदगी
जैसे कल चल रही थी आज भी वैसी ही है
पर मेरा क्या, मुझसे तो मेरी पहचान भी छीन गई
और जो कभी मैं अपनी माँ से थोड़ी देर बात कर लूँ
तो ऐसा लगता है जैसे कोई गुनाह हो गया हो
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
आज तक मेरे माँ बाबा ने मुझ पर उंगली नहीं उठाई
ना ही कभी अभद्र शब्दों के बाण चलाए मुझ पर
लाखों मे एक थी उनकी बेटी, गुणों की खान
पर ससुराल आते ही ऐसा क्या बदल गया मुझमे
कि रोज हर बात के लिए आलोचनाएं मिलने लगी
मेरे चरित्र पर किचड़ उछाले जाने लगे
मेरे कोमल मन को बारबार लहूलुहान किया जाने लगा
और तुम उस वक़्त भी मुकदर्शक बन खड़े रहे
यही फर्ज़ है होता है एक पति का अपनी पत्नी के लिए
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
हर कदम साथ निभाने का वादा किया था तुमने
पर जब भी जरूरत पड़ी ख़ुद को तन्हा ही पाया
तेरे हर मुश्किलों मे तेरा हौसला बढ़ाया हमने
ख़ुद से भी ज्यादा ऐतबार किया था हमने तुम पर
पर तुम से वो साथ और भरोसा कभी ना पा सकी
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
अपनी ही शर्तों पे ज़िन्दगी जीने की आदत थी मुझे
मस्त बिंदास और बच्चों जैसी हरकतें थी मेरी
फ़िर भी तेरे लिए ख़ुद को पल में बदल डाला
तेरी ख़ुशी मे ही ख़ुद की ख़ुशी तलाशने लगी थी
बावज़ूद इसके तेरे संग दो पल को मैं तरसती रही
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
बेटी नहीं बेटा बना कर पाला था मेरे बाबा ने मुझे
तुम अगर अपने बीमार माँ बाप की सेवा करो तो फर्ज़
और जो मैं करना चाहूं तो मेरे पैरों में बेड़ियाँ
तुम्हारी बहन मायके में महीनों बिताए तो उसका हक
और जो मैं कुछ दिनों के लिए मायके चली जाऊँ
अपने जरूरतमंद माँ बाप की सेवा करने या मन बहलाने
तो जमाने भर के ताने और मेरे संस्कारों को गालियाँ
क्या इस दर्द को समझ सकता है कोई....
#SwetaBarnwal