Monday 27 January 2020

भारत; एक नई पहचान...

लाशों की इस नगरी में
अरमान सजाने निकली हूँ...
भारत को फ़िर से एक नई
पहचान दिलाने निकली हूँ...

सदियों से जो सोये हुए हैं
उनको आज जगाने निकली हूँ,
भारत माँ की बेटी मैं
मिट्टी का कर्ज चुकाने निकली हूँ,

लाशों की इस नगरी में
अरमान सजाने निकली हूँ...

छोड़ो भी ये तीज त्योहार,
फा़नदो अपने घर की चार दीवार,
अब तोड़ भी दो अपनी ख़ामोशी को
छोड़ो अपनी मदहोशी को,
कब तक गद्दारों को हम सर का ताज बनाएंगे,
कब तक झूठे भाई चारे की यूँ रित हम निभाएंगे,
आख़िर कब तक वीरों की कुर्बानी यूँ ही जाया जाएगी,
अब तो जागो साथियों कि मैं तुम्हें जगाने निकली हूँ

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

खून खौलता है अब मेरा जब लहू देखा वीर जवानों की,
ना जाने सूनी हो गई गोद कितने ही माओं की,
उजड़ गया सुहाग ना जाने कितने ही नव वधुओं का,
नाथ छिन गया ना जाने कितने ही बच्चों का,
देख ऐसी दुर्दशा देश की मैं ललकार लगाने निकली हूँ,

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

कौन कहता है कि चरखे ने आज़ादी दिलाई है,
क्या पागल थे वो लोग जिन्होंने सीने पे गोली खाई है,
मांगने से अगर मिल जाती स्वतंत्रता,
तो यूँ माँ भारती का आँचल लहू से लाल नहीं होता,
जो भ्रांति फैली हुई है यहाँ सभी के मन में,
अपनी आवाज़ से मैं उसे मिटाने निकली हूँ,

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

टुकड़ों में माँ भारती को आज उन्हीं के सपूत करने को तैयार है,
आतंकवाद की डगर पे देखो सब चलने को तैयार हैं,
अपनों के हाथों में ही खंजर है कोई नहीं यहाँ मददगार है,
लूटने को सब बैठे हैं यहां कोई नहीं पहरेदार है,
छोड़ घर की दहलीज़ आज मैं
अपनी कलम से यलगार लगाने निकली हूँ,

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

सत्ता के लिए देश बांटने वालों की है ये ज़मीं नहीं,
मातृ भूमि पे जो मर मिटे उनकी ये फुलवारी है,
आतंकवाद को उखाड़ फेंकने की अब हमने ठानी है,
अपने मे छुपे हुए गद्दारों की ख़तम अब हर कहानी है,
मातृभूमि की रक्षा के ख़ातिर मैं अलख जगाने निकली हूँ,
ज़िंदा लाशों मे अब मैं अंगार भरने निकली हूँ...

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

भारत को एक बार फिर से विश्व गुरु बनाने निकली हूँ,
भूल चुके जो बात सभी वो सबको याद दिलाने निकली हूँ,
इस मिट्टी का मोल सभी को मैं समझाने निकली हूँ,
धूमिल पड़ गई जो छवि इसकी मैं उसे संवारने निकली हूँ,
माँ भारती की बेटी मैं आसमाँ मे भगवा लहराने निकली हूँ...

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...

आजादी के इस पावन अवसर पर ये  अह्सास जगाने निकली हूँ, 
असंख्य बलिदानों के बाद मिली है जो उसको सम्मान दिलाने निकली हूँ, 
चरखे और लाठी से आजादी कब मिली है किसी को, 
सीने पर गोली खाई थी वीरों ने तब जाकर ये आज़ादी पाई है, 
खैरात मे नहीं मिलती है आजादी ये सबको याद दिलाने निकली हूँ... 

लाशों की इस नगरी में
मैं अरमान सजाने निकली हूँ...
भारत माँ को फ़िर से एक नई
पहचान दिलाने निकली हूँ...

#SwetaBarnwal

Wednesday 22 January 2020

कौन कहता है कि हमें आज़ादी चरखे ने दिलाई है,
बेवकूफ़ थे क्या वो लोग जिन्होंने अपने सीने पे गोली खाई है...
मांगने से तो एक तिनका भी हासिल नहीं होता यहां,
फ़िर किसने यहां ये झूठी अफ़वाह  फैलाई है ...
जय हिंद... 🙏🚩

#SwetaBarnwal 

Friday 10 January 2020

ज़िंदगी...,

अपनी ज़िंदगी की आज मैं किस्से सुनाता हूँ,
बीते हुए लम्हों की उसमें मैं मोती पिरोता हूँ,
कभी मेरी ज़िंदगी में खुशियों का तराना था,
आज तो बस खुशियों का बहाना है,
खुल कर हंसा करता था कभी,
आज बस दिखावे की हंसी रखता हूँ,
आँसुओं को अपने पलकों के पीछे छुपाता हूँ,
दर्द को अपने मैं इस दुनिया से छुपाता हूँ,
ना चाहूँ फ़िर भी बेबाक हंसता हूँ,
इस हंसी के पीछे हर तकलीफ़ छुपाता हूँ,
ख़ुशी बांट कर ख़ुद के लिए ग़म संजोता हूँ,
महफ़िल में रह कर भी ख़ुद को तन्हा पाता हूँ,
अपनों के बीच भी बेगाना बना रहता हूँ,
जिसे भी चाहा उससे दूर हुआ जाता हूँ,
अकेले जब भी होता हूँ
बीते लम्हों को मैं याद करता हूँ,
ज़िम्मेदारियों के बोझ ने मुझको बुढ़ा बना दिया,
पर आज भी दिल में अपने मैं बचपना संजोता हूँ,
बहुत दूर आ चुका हूँ मैं चलते चलते,
अब थोड़ी देर के लिए मैं सुस्ताना चाहता हूँ,
कोई सम्भाल ले मुझको अपने पनाहों मे,
अब और नहीं ज़िंदगी से मैं टकराना चाहता हूँ...


#SwetaBarnwal 
लगा के आग ख्वाहिशों को दिल को एक पल का सुकून ना आया,
जला जो आशियां किसी का करार मिल गया...

#SwetaBarnwal 

ऐ विधाता...!

 ऐ विधाता...! ना जाने तू कैसे खेल खिलाता है...  किसी पे अपना सारा प्यार लुटाते हो, और किसी को जीवन भर तरसाते हो,  कोई लाखों की किस्मत का माल...